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कविता

समर्पण के नाम संबोधन

पुष्पिता अवस्थी


अपनी फड़फड़ाहट
सौंप देती है पक्षियों को

अपना ताप
लौटा देती है सूरज को

अपना आवेग
दे देती है हवाओं को

अपनी प्यास
भेज देती है नदी के ओठों को

अपना अकेलापन
घोल देती है एकांत कोने में

फिर भी
हाँ... फिर भी
उसके पास
यह सब बचा रह जाता है
उसकी पहचान बन कर

मंदिर में
ईश्वर को हाजिर मानकर
वह लौटा देती है
अपनी आत्मा
गहरी शांति के लिए

बहुत
खामोशी है
शब्द की तरह

आँखें
खुली हैं
किताब की तरह

हाथ की ऊँगलियों में
फँसी है पेंसिल
उतरती हैं उससे काँपती रेखाएँ
और सिहरते शब्द

मन
अब तक नहीं जान पाया
कैसे कहे अपनी बात
कि वह समझी जाए
जो वह कहना चाहता है
ईश्वर को ईश्वर
और
जरूरत को जरूरत

 


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